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सामान्य अगर कोई मन्दिर, जो किसी महान् शिल्पी की परिकल्पना के अनुसार बना हो, शेखी बघारने लगे , ''मेरे गुणों को देखो, क्या मैं सुन्दर नहीं हूं, सुनिर्मित, ठोस ओर टिकाऊ नहीं हूं ? सचमुच मैं प्रशंसा का अधिकारी हूं !'' --मानों वही अपनी पूर्णता का रचयिता है, तो तुम क्या कहोगे ? हमें यह बहुत मूर्खतापूर्ण और हास्यास्पद लगेगा, लेकिन फिर भी हम हमेशा यही तो करते रहते हैं । मन्दिर की भांति हम भी उस महान् सचेतन शक्ति से अनभिज्ञ हैं जिसने हमें वह बनाया है जो हम हैं । और चूंकि हम उस 'परम कर्ता' के श्रम को नहीं देख सकते इसलिए हम उस 'कार्य' का श्रेय अपने- आपको दे लेते हैं । १९ जनवरी, १९३३
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कर्म की शक्ति : वह शक्ति जो भगवान् के प्रति सच्चे समर्पण का परिणाम होती है ।
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एक बार चेतना अभीप्सा में प्रतिष्ठित हो जाये तो वह कार्य या कार्य के अभाव पर निर्भर नहीं रहती । १७ दिसम्बर, १९३३
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एक काम का समय होता है और एक एकाग्रता का । अगर भूल से तुम एकाग्रता के समय को काम शुरू करने के लिए चुन लो तो काम निश्चय ही असफल होगा ।
लेकिन अगर तुम श्रद्धा को जीवित-जाग्रत् रखो तो असफलता भी भगवान् तक पहुंचने का छोटा मार्ग बन सकती है ।
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३५५ यह सच है कि भगवान् का संरक्षण हमेशा हमारे चारों ओर रहता है लेकिन वह पूरी तरह तभी काम करता है जब हम अपरिहार्य संकटों से घिरे हों; यानी, अगर संकट अचानक ऐसे समय उठ खड़े हों जब हम भगवान् के लिए कुछ काम कर रहे हों । तब संरक्षण अच्छे-से-अच्छा काम करता है । लेकिन कोई ऐसा काम हाथ में ले लेना जो बिलकुल अनिवार्य न हो, जो निश्चित रूप से उपयोगी भी न हो पर हो बहुत ज्यादा संकटाकीर्ण और तब यह आशा रखना कि भगवान् तुम्हें सभी सम्भव संकटों से बचायेंगे, ऐसी क्रिया है मानों भगवान् को चुनौती दी जा रही हो और भगवान् इसे कभी स्वीकार न करेंगे ।
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जब काम का आरम्भ भगवान् की इच्छा से होता है तो वह हमेशा पवित्र होता है ।
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अगर तुम पूरी सचाई के साथ भागवत इच्छा को प्रकट करने के लिए कार्य करते हो तो बिना अपवाद के हर काम निस्स्वार्थ बन सकता है । परन्तु जब तक यह स्थिति न आ जाये तब तक कुछ ऐसे काम होते हैं जो भगवान् के साथ सम्पर्क जोड़ने के लिए ज्यादा अनुकूल होते हैं ।
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हर एक को अपनी प्रगति के अनुकूल काम ढूंढ़ना चाहिये ।
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अच्छा भौतिक कार्य जो सामान्य क्षमताओं से बढ़कर न हो शारीरिक स्वास्थ्य और नैतिक सन्तुलन बनाये रखने के लिए सबसे अधिक उपयोगी है । १३ जुलाई, १९३५
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३५६ क्या अपने- आप शारीरिक काम करने का कोई इरादा नहीं है तुम्हारा ? लेकिन शरीर के क्षेम के लिए यह बिलकुल अनिवार्य है । ३० जनवरी, १९४५
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आओ, हम स्थिर मन और शान्त हृदय के साथ खुशी से काम करें । १६ मई, १९५४
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समस्त कार्य को एक खेल होना चाहिये, लेकिन एक दिव्य-खेल जो भगवान् के लिए और भगवान् के साथ खेला जाता है ।
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भगवान् के लिए काम करना बहुत अच्छा है, यह आनन्द है ।
लेकिन भगवान् के साथ काम करना, उससे भी कहीं अधिक गहरा और अधिक मधुर परम आनन्द है । १२ जुलाई, १९५७
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परिश्रम के बिना कोई अस्तित्व नहीं है-- अगर तुम परिश्रम से निकलना चाहो तो तुम्हें जीवन से बाहर निकलना होगा । उसे पाने का एकमात्र उपाय है निर्वाण । और वह मार्ग, उसका अनुसरण करना, सभी परिश्रमों से बड़ा परिश्रम है । ६ नवम्बर, १९६०
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हमें, हममें से हर एक को एक भूमिका निभानी है, एक कार्य करना है, एक जगह है जिसे केवल हम ही भर सकते हैं ।
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३५७ (आश्रम टंकण विभाग के वार्षिकोत्सव पर सन्देश)
उन सबको आशीर्वाद जो ईमानदारी, सत्संकल्प, नियमितता और सुरुचि के साथ काम करते हैं और उन सबको भी जो सीखना और प्रगति करना चाहते हैं । २९ मार्च, १९६६
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काम अपने पूरे दिल से जितना अच्छे-से-अच्छा कर सकते हो करो और मेरे आशीर्वाद और मेरी सहायता हमेशा तुम्हारे साथ रहेंगे । १२ मई, १९७१
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